शब्द एक अभिव्यक्ति अनेक l
शब्द एक अभिव्यक्ति अनेक l

शब्द एक अभिव्यक्ति अनेक l

शब्द एक अभिव्यक्ति अनेक

शब्द भले ही सबके लिए एक हैं, लेकिन उनके मायने हर किसी के लिए अलग-अलग हैं। कोई एक खास शब्द सुनकर जो कुछ आप सोचते हैं, हो सकता है वह मेरी सोच से अलग हो। या किसी एक दूसरे शब्द से जो विचार मेरे मन में आता है, हो सकता है वह आपके विचार से भिन्न हो। एक ही शब्द की अनेक अभिव्यक्तियाँ हैं। कौन-सा शब्द किसी व्यक्ति के जीवन के किस हिस्से से जुड़ा है, उसे कौन-से अनुभव की याद दिलाता है, और उसके मन को किन भावों से भर देता है, यह जानना बड़ा मुश्किल है — और शायद यही शब्दों से जुड़ा मनोविज्ञान है।

 

“जो घनीभूत पीड़ा थी

मस्तक में स्मृति-सी छाई

दुर्दिन में आँसू बनकर

वह आज बरसने आई”

—– जयशंकर प्रसाद

 

आँसू, दुख और सुख की चरम अभिव्यक्ति है। भीतर जमकर ठोस हो चुकी भावनाएं जब पिघलकर बाहर निकल पड़ती हैं तो आँसू बन जाती हैं।

 

कभी बोलकर

कभी बिन बताए

आ ही जाते हैं

जीवन में वे क्षण

 

तीव्र भावावेग

भावनाओं का अतिरेक

तोड़ने लगता है

धैर्य की सीमा

 

टकराने लगती हैं

भीतर गहराई में

चट्टानें

जो बनीं थीं जमने से

जज़्बातों की परत पर परत

 

ज़ोर से आता है

एक तेज़ भूचाल

काँपने लगता है

अंदर बना

एक पुराना घर

 

पड़ने लगतीं हैं

सीलन भरी दीवार पर

दरारें

और रिसने लगता है

नमकीन पानी।

—– शुभ्र

 

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“देखो, आहिस्ता चलो

और भी आहिस्ता ज़रा

देखना, सोच सँभल कर ज़रा पाँव रखना

ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं

कांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में

ख़्वाब टूटे न कोई जाग न जाए देखो

 

जाग जाएगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा”

—– गुलज़ार

 

नींद में हों या आँखें खुली हों, ख़्वाब हर कोई देखता है। किसी से भी पूछो, और कुछ हो ना हो उसके पास, ख़्वाब ज़रूर होते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं, ख़्वाब सबके पूरे नहीं होते, जिनके होते भी हैं, उनके भी सारे नहीं होते। खैर, पूरे हों या ना हों, हवा और पानी की तरह ख़्वाब भी ज़रूरी हैं जीने के लिए। ख़्वाब ज़रूरी हैं हर उम्र के लिए, हर दौर के लिए।

 

कुछ तो था, जो मन में ही रहा,

ज़बां की चौखट ना लांघ सका।

 

कुछ तो है, जो गल रहा है,

लावा बनकर बह रहा है,

जला रहा है सब कुछ।

 

देखो तो,

वो ख़्वाब भी जल गये हैं शायद …

वहाँ, उस कोने में संभाल कर रखे थे।

 

देर कर दी तुमने,

अब ये अधजले टुकड़े क्या दिखाऊं,

पूरा जल जाने दो इन्हें, राख हो जाने दो।

 

सुना तुमने,

जलते-जलते कैसे चट-चट बोलते हैं,

हाँ, वो बीते दिनों की

कुछ नमी रह गयी है ना …।

—– शुभ्र

 

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बात सीधी थी पर एक बार

भाषा के चक्कर में

ज़रा टेढ़ी फंस गई

 

उसे पाने की कोशिश में

भाषा को उलटा पलटा

तोड़ा मरोड़ा

घुमाया फिराया

 

कि बात या तो बने

या फिर भाषा से बाहर आये

लेकिन इससे भाषा के साथ-साथ

बात और भी पेचीदा होती चली गई”

—– कुंवर नारायण

 

बातों की माया बड़ी विचित्र है। एक तो ज़िद्दी बहुत है, एक बार ज़रा मुँह से क्या निकल जाए, बात कभी वापस नहीं आती। अगर कोई बात समझ ना आए, तो उस एक को समझने के लिए ना जाने कितनी और समझनी पड़ती हैं। बातें लोगों को नज़दीक ले लाती हैं, और दूर भी यही करती हैं।

 

देखता हूँ

खाली हो गया है मेरा कमरा

वैसे हर दरवाज़ा,

हर खिड़की बंद की थी मैंने

शायद कोई झरोखा खुला रह गया

 

निकल जाने की फ़िराक़ में

वैसे तो वो बरसों से थी

लेकिन लगता है कल

घुटन कुछ ज़्यादा बढ़ गयी

 

बात कुछ ऐसी थी

जो कह दी, कहनी ना थी।

भीतर रहती, अनकही रहती

तो ठीक थी।

—– शुभ्र

 

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शुभ्र आत्रेय,
कॉन्टेंट राइटर,
आई० टी० डिपार्टमेंट

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