जिज्ञासा: मानव जीवन की प्रेरणा
जिज्ञासा यानी जानने की इच्छा! क्या मनुष्य बिना जाने रह सकता है? क्या यह संभव है कि मन में कौतूहल ना जगे, कोई सवाल ना आये, या फिर देश-विदेश की घटनाओं के बारे में जानने की उत्सुकता ही ना हो? क्या जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है? दरअसल ये उतना ही स्वाभाविक है जितना साँस लेना या प्यास लगना।
जिज्ञासा का जन्म, निश्चित रूप से, इस पृथ्वी पर मनुष्य के आगमन के साथ ही हुआ होगा। पाषाण काल का मानव दिन में चमकते सूर्य और रात्रि में चन्द्रमा व आसमान में बिखरे तारों को अचरज भरी दृष्टि से देखता होगा। कड़कती बिजली, बादलों का गर्जन, आकाश से गिरती बारिश की बूँदें, वन में लगी आग, या फिर आँधी-तूफ़ान ने प्रागैतिहासिक युग के मनुष्य के मन में अवश्य ही कौतूहल उत्पन्न किया होगा। युग बीतते गए, समय के साथ मनुष्य की बुद्धि का विकास होता गया, और साथ ही वह इन प्राकृतिक घटनाओं का कारण जानने का यथासंभव प्रयास भी निरंतर करता गया। आधुनिक समय में यदि मनुष्य प्रकृति की इस लीला की वैज्ञानिक व्याख्या करने में सक्षम है, तो यह हज़ारों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुई उस जिज्ञासा का ही परिणाम है।
“सेब पेड़ से गिरा तो सीधे धरती की ओर नीचे ही क्यों गया, ऊपर क्यों नहीं, या क्यों हवा में ही नहीं तैरने लगा?” न्यूटन के मन में जन्मी इस जिज्ञासा ने ही उन्हें मानव इतिहास की शायद सबसे बड़ी खोज करने के लिए प्रेरित किया, और वे यह सिद्ध कर पाए कि जिस बल के कारण सेब पेड़ से सीधे नीचे गिरता है, जो बल हमें इस धरती पर थामे रहता है, वही बल चन्द्रमा व ग्रहों को अपनी कक्षा में भी बनाए रखता है। अतः यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दुनिया के इतिहास में जब भी कोई नया सिद्धांत आया या कोई नया आविष्कार हुआ, तो उसकी शुरूआत किसी जिज्ञासु व्यक्ति के मन में जन्मे प्रश्न से ही हुई होगी।
क्या, कौन, कब, कहाँ, कैसे, और क्यों — जिज्ञासा प्रश्न के रूप में प्रकट होती है, इसका आरंभ होता है एक साधारण प्रश्न से, ऐसा प्रश्न जिसके उत्तर में बहुत कुछ असाधारण छिपा रहता है। बच्चों का मन जिज्ञासा का प्रिय वास-स्थान है। उनके मुख से निकलते सरल प्रश्न विभिन्न घटनाओं के कारण जानने और ज्ञान-विज्ञान के जटिल सिद्धांतों को समझने का प्रथम प्रयास होते हैं। ज़रा कल्पना करिये कि यदि मनुष्य में जिज्ञासा न रही होती तो क्या होता — समाचार पढ़ने या देखने में किसी की रूचि न होती, और फिर समाचार-पत्र / समाचार चैनल होते ही क्यों, कक्षा में प्रश्न पूछने के लिए विद्यार्थियों के हाथ ना उठते, वैसे कोई पढ़ना-लिखना न चाहता तो फिर विद्यार्थी ही क्यों होते, विज्ञान जैसी कोई चीज़ ना होती क्योंकि किसी में जानने-समझने-खोजने की इच्छा ही ना होती — यानी मनुष्य प्रगति ही न कर पाता और आज भी आदि मानव, जो पशु से बहुत भिन्न नहीं था, की तरह जीवन जी रहा होता। (कहने की ज़रूरत नहीं कि जिज्ञासा पशुओं में भी होती है, जैसे कुत्ते के भौंकने का कारण उसकी जिज्ञासा है।)
“कस्मै देवाय हविषा विधेम” (किस देवता को हवि अर्पित करें, किसकी उपासना करें) — ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त का यह वाक्य मानव मन की जिज्ञासा को ही दर्शाता है। प्राचीन काल से ही ऋषियों व दार्शनिकों के मन में सृष्टि के आरंभ एवं सृष्टि के नियंता को लेकर कौतूहल रहा है। वे निरंतर इस प्रश्न पर विचार करते रहे कि कौन इस जगत का संचालन कर रहा है, और उनकी इसी जिज्ञासा ने उन्हें इसका उत्तर स्वयं के भीतर खोजने को प्रेरित किया।
जीवन का सौंदर्य वास्तव में जिज्ञासा से ही है। क्या होगा, कैसे होगा, भविष्य के गर्त में क्या छिपा है, यह चिंतन मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए, कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, वह “न जानने” से “जानने” की ओर बढ़ता है। अगर पहले से ही सब पता हो तो जीवन जीने में आनंद कहाँ। यह जो जानने की उत्सुकता है, यही जिज्ञासा मानव जीवन की प्रेरणा है।
शुभ्र आत्रेय,
कॉन्टेंट राइटर,
आई० टी० डिपार्टमेंट