स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा शक्ति ‘वंदेमातरम्‘ में चिति शक्ति
‘चिति’ शक्ति राष्ट्र की उस अंतर्निहित ऊर्जा को दर्शाती है, जो देशवासियों को एकजुट करती है और उन्हें एक दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। वंदेमातरम् ने इस चिति शक्ति को जागृत किया। इस गीत ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष में न केवल जनमानस को प्रेरित किया बल्कि विभिन्न समुदायों, जातियों, भाषाओं और धर्मों के बीच सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक बन गया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए किया गया संघर्ष नहीं था, बल्कि यह राष्ट्र के पुनर्निर्माण और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक भी था। इसमें चिति शक्ति अर्थात राष्ट्र की सामूहिक चेतना की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह चिति शक्ति भारतीय संस्कृति, इतिहास, परंपरा और भाषा के साथ-साथ लोगों की आस्था और मूल्यों से जुड़ी थी। इस संघर्ष में वंदेमातरम् ने न केवल एक गीत के रूप में, बल्कि एक प्रेरणा शक्ति के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सर्वविदित है कि 7 नवम्बर, सन 1876 ई. में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने बंगाल के कांतल पाड़ा नाम के गाँव में सुप्रसिद्ध वंदे मातरम् गीत की रचना की थी तथा यह उनके उपन्यास ‘आनंदमठ’ सन 1882 ई. में प्रकाशित हुआ। यह गीत भारत माता की महिमा का वर्णन करता है तथा मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना को उजागर करता है। वंदेमातरम् गीत भारतीय स्वाधीनता संग्राम की अवधि में एक प्रेरणा स्रोत बन गया था। इस गीत की पंक्तियों में चिति शक्ति का आह्वान स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
जिस क्षण वंदेमातरम् का पहली बार गायन किया गया तभी से यह मात्र एक गीत न रहकर औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध भारतीय जनता के विद्रोह का नारा बन गया। वंदेमातरम् की लोकप्रियता बुद्धिजीवी या अभिजात वर्ग तक सीमित नहीं थी बल्कि भाषा, जाति और सामाजिक बाधाओं को पार करते हुए इसे सम्पूर्ण भारत में जन सामान्य ने अपनाया। इस गीत की भावनात्मक शक्ति; लोगों को पहचान और उद्देश्य की साझा भावना में एकजुट करने की इसकी क्षमता में निहित थी। मातृभूमि का इतने शक्तिशाली ढंग से आह्वान करने से देश के प्रति प्रेम, गर्व और भक्ति की भावना उत्पन्न हुई, जो भारत वर्ष की चिति (सामूहिक चेतना) को प्रेरित करने के लिए आवश्यक थी।
19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के आरम्भ में भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन जोर पकड़ रहा था। ‘बाल गंगाधर तिलक’, ‘लाला लाजपत राय’ और ‘बिपिन चंद्र पाल’ जैसे नेता सक्रिय रूप से स्वशासन की माँग कर रहे थे और वंदेमातरम् इस वैचारिक ढाँचे का एक महत्वपूर्ण अंग या कहें प्रेरक शक्ति बन गया। उस समय यह मात्र एक गीत नहीं था बल्कि यह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध प्रतिरोध का एक आख्यान बन गया था। इसके शब्द (बोल) जान सामान्य को आकर्षित कर रहे थे और उन्हें अपनी मिट्टी, परंपरा और विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध प्रतिरोध के लंबे इतिहास से जुड़े होने का स्मरण करा रहे थे।
सन 1906 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में वंदेमातरम् को आधिकारिक रूप से अपनाया गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष, और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने वंदेमातरम् को भारतीय संस्कृति और स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया।
वंदेमातरम् को एकता और प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में प्रयोग करने वाली पहली प्रमुख घटनाओं में से एक है सन 1905 ई. का बंगभंग आंदोलन था। ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक कारणों से बंगाल का विभाजन करने का निर्णय किया था, लेकिन वास्तव में, यह धार्मिक आधार पर आबादी को विभाजित करने और क्षेत्र में बढ़ती राष्ट्रवादी भावना को दबाने का एक प्रयास था। बंगाल का विभाजन भारतीय लोगों की एकता के लिए एक सीधी चुनौती थी और इस कदम का विरोध करने के लिए वंदेमातरम् को नारे के रूप में अपनाया गया था।
वंदेमातरम् उस समय जनता का नारा बन गया तथा एकजुट भारत के लिए इसकी शक्तिशाली अपील ने लोगों को गहराई से स्पर्श किया। विरोध प्रदर्शनों, जुलूसों और सभाओं में, वंदेमातरम् एक एकीकृत गान बन गया जिसने एक सामान्य उद्देश्य के लिए अपनी लड़ाई में बहुलताओं से युक्त आबादी को एकजुट किया। बंगाल विभाजन के विरोध में वंदेमातरम् एकता का प्रतीक बनकर उभरा। स्वतंत्रता सेनानियों ने इसे अपने आंदोलनों और सभाओं में गाया, जिससे यह पूरे भारत में लोकप्रिय होते हुए जान सामान्य तक पहुँच गया।
20वीं सदी के प्रारम्भ में, वंदेमातरम् को कांग्रेस और अन्य राष्ट्रवादी संगठनों ने अपने अभियानों के अंग के रूप में तेजी से अपनाया। सन 1857 ई. में प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान इस गीत को और भी अधिक महत्व मिला, जो असफल होने के बावजूद स्वाधीनता संग्राम के व्यापक संदर्भ में एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसे विभिन्न राजनीतिक और सार्वजनिक समारोहों में गाया गया और यह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के ताने-बाने का एक अविभाज्य अंग बन गया।
वंदेमातरम् की शक्ति के मूल में चिति (सामूहिक चेतना) को जागृत करने की इसकी क्षमता निहित है। समाजशास्त्रीय शब्दों में चिति, साझा विश्वासों, मूल्यों और दृष्टिकोणों को संदर्भित करती है जो लोगों के एक समूह को एक साथ बांधती हैं। भारत के स्वाधीनता संग्राम में वंदेमातरम् ने स्वतंत्रता, एकता और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान की आकांक्षा में राष्ट्र की सामूहिक चेतना को समाहित किया।
वंदेमातरम् ने जिस चिति को पोषित किया, उसे कई प्रमुख आयामों के माध्यम से समझा जा सकता है। जैसे इसने सर्व प्रथम एक साझा पहचान का आह्वान किया जो क्षेत्रीय, भाषाई और धार्मिक विभाजनों से परे थी। भारत एक बहुत विविधता और बहुलता से युक्त देश है और स्वाधीनता आंदोलन में सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक इन मतभेदों के बावजूद लोगों को एकजुट करना था। वंदे मातरम ने मातृभूमि के प्रति समर्पण के आह्वान के माध्यम से एकता का एक शक्तिशाली प्रतीक प्रस्तुत किया। इसने लोगों को न केवल भारत के नागरिक के रूप में, बल्कि भारत माता के पुत्र-पुत्रियों के रूप में भी एकजुट किया। यह सामूहिक पहचान एक राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण थी जिसने अंततः स्वाधीनता के लिए सफल संघर्ष का नेतृत्व किया।
द्वितीय, वंदेमातरम् में एक भावनात्मक अपील थी जो जनसामान्य के ह्रदय में गूंजती थी। संगीत और काव्य में लोगों को झकझोरने और गहरी भावनाओं को जागृत की एक अनोखी शक्ति होती है। वंदेमातरम् ने केवल बौद्धिक जुड़ाव या राजनीतिक समर्थन का आह्वान नहीं किया बल्कि इसने हर भारतीय के हृदय और आत्मा को आकर्षित किया। चाहे वह खेतों में किसान हो, कक्षा में छात्र हो या अग्रिम मोर्चे पर तैनात सैनिक, वंदे मातरम ने सभी के संघर्ष को एक स्तर पर भावनात्मक रूप से जोड़ा। इसने लोगों की आकांक्षाओं और कुंठाओं को स्वर दिया और सामूहिक शक्ति का स्मरण कराया जिसका उपयोग स्वाधीनता प्राप्ति के लिए किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त, वंदेमातरम् भारतीयों के अपनी भूमि से गहरे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जुड़ाव का भी स्मरण करता है।
भारत माता की छवि को माँ के रूप में देखने से प्रेम, सम्मान और बलिदान के पारंपरिक मूल्यों का आह्वान होता है। स्वतंत्रता के संघर्ष में महिलाओं और बच्चों सहित सभी क्षेत्रों के लोगों को संगठित करने के लिए यह भावनात्मक अपील आवश्यक थी। वंदेमातरम् में जिस सामूहिक दायित्त्व की भावना को उजागर किया गया है, उसने प्रत्येक भारतीय को संघर्ष में व्यक्तिगत रूप से सम्मिलित होने का अनुभव कराया जिसके फलस्वरूप सभी भारतीय एक स्तर पर एकजुट होते चले गए और इस एकता का परिणाम हम सभी के सामने है।
वंदेमातरम् की पंक्तियाँ न केवल राष्ट्रीय आंदोलन में गूंजती थीं, बल्कि कवियों, लेखकों, और संगीतकारों के लिए प्रेरणा स्रोत भी बनीं। रवींद्रनाथ ठाकुर और सुभ्रमण्य भारती जैसे साहित्यकारों ने इसके माध्यम से राष्ट्रीय भावना का प्रचार किया। इसकी भावनात्मक और आध्यात्मिक गहराई ने इसे हर भारतीय के दिल में विशेष स्थान दिलाया। वंदेमातरम् भारतीय साहित्य और संगीत में राष्ट्रभक्ति और सामूहिक चेतना का अमिट प्रतीक है। इस गीत ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान कवियों, लेखकों और संगीतकारों को प्रेरित किया। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविताओं और रचनाओं के माध्यम से इस गीत की गहराई को भारतीय समाज तक पहुँचाया, जबकि सुभ्रमण्य भारती ने तमिल साहित्य में इसके आदर्शों को साकार किया। महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे हिंदी साहित्यकारों ने भी अपनी कविताओं में वंदेमातरम् की भावना को जीवंत रखा।
संगीत के क्षेत्र में वंदेमातरम् ने एकता और प्रेरणा का अद्वितीय स्रोत बनकर स्वाधीनता संग्राम को नई ऊर्जा दी। रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे बंगाल की पारंपरिक संगीत शैली में ढालकर जनता तक पहुँचाया। दक्षिण भारत में इसे क्षेत्रीय धुनों में गाया गया, जबकि उत्तर भारत में इसे पारंपरिक रागों में प्रस्तुत किया गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह गीत रैलियों और आंदोलन में जनता के आक्रोश और एकता का प्रतीक बन गया।
साहित्य और संगीत के माध्यम से वंदेमातरम् ने भारतीय समाज में राष्ट्रभक्ति की भावना को प्रबल किया और हर भारतीय को अपनी मातृभूमि के प्रति गर्व और समर्पण का संदेश दिया। यह गीत न केवल स्वाधीनता संग्राम का प्रतीक है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक एकता और पहचान का भी अंग है। वंदेमातरम की निरंतर प्रासंगिकता राष्ट्रीय संकट या संघर्ष के समय लोगों को एकजुट करने की इसकी क्षमता में देखी जाती है। चाहे युद्ध हो, प्राकृतिक आपदाएँ हों या सामाजिक उथल-पुथल, इस गीत में राष्ट्र को एकजुट करने और लोगों को उनकी साझा विरासत और सामान्य उद्देश्य को स्मरण करने की शक्ति है।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि वंदेमातरम् भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान केवल एक गीत नहीं, बल्कि राष्ट्र के पुनर्जागरण और सामूहिक चेतना का प्रतीक बन गया था। इसने मातृभूमि के प्रति प्रेम और बलिदान की भावना को जागृत करते हुए, भाषाई, धार्मिक और क्षेत्रीय सीमाओं को लांघकर देशवासियों को एक साझा उद्देश्य के लिए प्रेरित किया। इसने भारतीय समाज की चिति शक्ति—एकता, सांस्कृतिक अस्मिता और राष्ट्रीय गौरव को सशक्त किया। यह एक ऐसा माध्यम बना जिसने हर वर्ग, हर क्षेत्र और हर समुदाय को मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण कराया।
वंदेमातरम् की प्रेरणा हर दौर में राष्ट्र को अपने गौरव और सांस्कृतिक विरासत से जोड़े रखने का आह्वान करती है। इस गीत ने न केवल स्वतंत्रता की ओर प्रेरित किया, बल्कि भारतीयों के बीच एकता और सामूहिक राष्ट्रवाद की भावना को प्रगाढ़ किया। आज भी यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक बना हुआ है और हमारे समाज में एकता और सामूहिक चेतना के महत्व को दर्शाता है यह गीत संघर्ष के दिनों में प्रतिरोध का नारा बना और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का मार्गदर्शक। आज भी वंदेमातरम् भारतीय पहचान और राष्ट्रीय चेतना का शाश्वत प्रतीक है। यह गीत केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य में भी देश की एकता और सामूहिक ऊर्जा को संजोने का माध्यम है।
डॉ. सीमा शर्मा
सह आचार्य (हिंदी) एवं
अध्यक्ष, भाषा विभाग
स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ