युग प्रवर्तक तथागत बुद्ध 

प्राचीन भारत के इतिहास में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के इतिहास में यह एक विलक्षण घटना थी। आज से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व क्षत्रिय कुल में जन्मा एक राजकुमार अपने परिवार एवं समस्त राजकीय वैभव को त्यागकर मानवमात्र के दुखों के निवारण का मार्ग खोजने निकल पड़ा। वृद्धावस्था, रोगों से ग्रस्त कृशकाय शरीर एवं मृत्यु — मनुष्य के जीवनकाल की इन कष्टकर अवस्थाओं को अपने जीवन में पहली बार देख उसका चित्त अशांत हो उठा था। मनुष्य के असंख्य दुखों का कारण क्या है, क्या सांसारिक दुखों से मुक्ति संभव है, परम सत्य क्या है; कुछ ऐसे ही मूल प्रश्नों के उत्तर की खोज में वह राजगृह का त्याग कर संन्यास के दुर्गम पथ पर बढ़ चला।

आरंभ से ही पुत्र के भविष्य के प्रति आशंकित पिता, राजा शुद्धोधन ने दुख की लेशमात्र छाया भी उस पर पड़ने न दी। सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण एवं राग-रंग से भरे राजप्रासाद में सिद्दार्थ का जीवन बीता। पत्नी व पुत्र का सुख भी उन्हें मिला। जीवन की कठोर वास्तविकता से वे अनजान ही रहे। परंतु नियति ने उन्हें कहीं और ले जाना था — एक दिन भ्रमण के लिए वे बाहर निकले और मानव जीवन के कटु यथार्थ से उनका परिचय हो गया। वृद्ध हो चला एक व्यक्ति उन्हें दिखा, रोगों से आक्रांत भयंकर कष्ट भोगते मनुष्य को उन्होंने देखा, उन्होंने मृत शरीर देखा, और निकट ही मृत व्यक्ति के वियोग में विलाप करते परिजनों को भी अवश्य उन्होंने देखा होगा। उन्होंने जाना कि एक न एक दिन हर किसी को इन अवस्थाओं से होकर गुज़रना है — सिद्धार्थ के लिए यह घटना असामान्य और असहज करने वाली थी। व्याकुलमना होकर, व्यथित मन से वे राजप्रासाद लौटे। ये करुण दृश्य उनके लिए किसी मानसिक आघात की तरह थे। मनुष्य की यह दारुण दशा देखकर उनके मन में जैसे एक विक्षोभ उमड़ आया था। वास्तव में, उनका यह अंतर्द्वंद्व, उनके जीवन में होने जा रहे एक विराट परिवर्तन की ओर संकेत कर रहा था, तथा उनके भीतर एक महान संकल्प को जन्म दे रहा था — पीड़ित मानवता को दुखों से त्राण दिलाने का महत् संकल्प। अंततः अर्द्धरात्रि के घोर अन्धकार में ऐश्वर्यपूर्ण जीवन और प्रियजनों का साथ सदा के लिए त्यागकर, दृढ़ निश्चय कर, सिद्धार्थ संन्यासी जीवन के कंटकपूर्ण मार्ग पर चल दिए।

परम ज्ञान को पाने की उत्कट इच्छा मन में लिए सिद्धार्थ वर्षों तक कठिन संघर्ष करते रहे। प्रारंभ में वे भ्रमण करते गए, दार्शनिकों व विचारकों से चर्चाएँ कीं, किंतु सांसारिक कष्टों के मूल कारण और उनसे मुक्ति के उपाय के सम्बन्ध में उन्हें कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। फिर उन्होंने आत्मदमन का रास्ता चुना और अत्यधिक कठोर तप करना आरंभ कर दिया। भोजन की मात्रा अत्यंत सूक्ष्म कर उन्होंने देह को भयंकर कष्ट दिया। परिणामतः शरीर की सारी शक्ति जाती रही तथा वह जर्जर होकर अस्थिपंजर मात्र रह गया। सिद्धार्थ समझ गए कि हठयोग के इस अतिवादी तरीके से वे अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर पाएँगे, और उन्होंने भोजन ग्रहण किया। आखिरकार एक पीपल के वृक्ष के नीचे वे ध्यान में बैठ गए — इस निश्चय के साथ कि इस बार वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करके रहेंगे। बौद्ध ग्रंथों में बड़ा ही दिलचस्प वर्णन है कि कैसे इस दौरान आसुरी शक्तियों ने अनेकों बार उनका ध्यान भंग करने तथा उन्हें विचलित करने के निष्फल प्रयत्न किये। कहा जाता है कि ध्यान के उनचासवें दिन अंततः वह सर्वोच्च ज्ञान उन्हें मिल गया जिसकी खोज में उन्होंने प्रत्येक सुख त्याग दिया था और वर्षों भटकते रहे थे। सिद्धार्थ अब ‘बुद्ध’ थे, जो मनुष्य के क्लेश का कारण व उससे मुक्ति का उपाय जान गए थे।

भारतीय इतिहास में बुद्ध का आगमन एक ऐसे समय पर हुआ जिसे संक्रमण काल कहा जा सकता है। जीवन के हर क्षेत्र में तीव्र गति से परिवर्तन हो रहे थे। कृषि की उन्नति एवं विस्तार हो रहा था, तथा व्यापार पहले की अपेक्षा बड़े पैमाने पर होने लगा था। शक्तिशाली राज्यों का उदय हो रहा था, और नगर मानव गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभर रहे थे। सामाजिक और आर्थिक विषमता पनपने लगी थी। जाति का बंधन कठोर हो रहा था।  प्राचीन वैदिक धर्म का ह्रास हो गया था तथा उसमें विकृतियाँ आ गयी थीं। विभिन्न कर्मकाण्डों व अन्धविश्वासों की प्रधानता थी। लोग समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असंतुष्ट थे और तेज़ी से हो रहे सामाजिक बदलावों ने उन्हें उलझनों में बाँध रखा था। धार्मिक जड़ता व रूढ़ियों से ग्रसित तत्कालीन समाज में गौतम बुद्ध नवजागरण का संदेश लेकर आये थे। उनकी चिंतनधारा जनमानस में एक नवीन आध्यात्मिक चेतना का संचार कर रही थी। बुद्ध के विचार सरल थे, जिन्हें समझने के लिए किसी जटिल दार्शनिक चिंतन की आवश्यकता नहीं थी। इसी कारण बौद्ध धर्म जनसाधारण में निरन्तर लोकप्रिय होता गया।

हज़ारों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता के इतिहास पर बुद्ध अपनी अमिट छाप छोड़ गए हैं। मनुष्य की पीड़ा के प्रति उनकी संवेदना अद्वितीय थी। ध्यानमग्न अवस्था में उनकी बंद आँखें करुणा के इस भाव को प्रकट करती दिखती हैं। बीते युगों में बुद्ध सदृश व्यक्तित्व ना तो उनके पूर्व कोई था, और ना उनके पश्चात् कोई आया। उनका एकमात्र लक्ष्य था — मानव को दुखों से मुक्ति या निर्वाण का मार्ग दिखाना। बुद्ध का यह लक्ष्य ही उनकी जीवन-गाथा का सार है।

Shubhra Atreya
Content Writer
IT SVSU

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