कुछ बातें हिंदी में, हिंदी के बारे में

कुछ बातें हिंदी में, हिंदी के बारे में

कुछ बातें हिंदी में, हिंदी के बारे में

मनुष्य के लिए उसकी मातृभाषा,
मात्र एक भाषा नहीं है।
माँ के मुख से सुने वो पहले शब्द,
मन के भावों की एकमात्र अभिव्यक्ति,
और संस्कृति का वास्तविक परिचय …
मातृभाषा ही तो है।

मातृभाषा क्या है ? माँ से सीखी भाषा, माँ के मुख से निकले वे शब्द, जिन्हें एक शिशु जीवन में पहली बार सुनता है। हम हिंदीभाषी या हिंदी पट्टी में रहने वालों के लिए यह भाषा हिंदी है। इसी तरह भारत के किसी अन्य क्षेत्र के निवासी के लिए यह बंगाली, पंजाबी, तमिल इत्यादि कोई भी एक भाषा हो सकती है।

मनुष्य का जीवन आरंभ होता है, तो साथ ही भाषा का अभ्यास भी शुरू होता है। हम हिंदी पट्टी के निवासियों के लिए यह शुरूआत आमतौर पर दो भाषाओं के अक्षर-ज्ञान से होती है — इंग्लैंड से आयी अंग्रेज़ी और हमारी चिर-परिचित हिंदी। स्कूल-कॉलेज की शिक्षा से लेकर ऑफिस के कामकाज तक लगभग पूरा ज़ोर अंग्रेज़ी को सीखने और इसके प्रयोग पर होता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि अंग्रेज़ी एक प्रकार से विश्वभाषा ही है। व्यापक तौर पर बोली जाने वाली भाषा अंग्रेज़ी के माध्यम से आप दुनिया भर की जानकारी हासिल कर सकते हैं और विश्व भर में बहुत से लोगों से संवाद कायम कर सकते हैं। अतः सूचना क्राँति के इस आधुनिक युग में अंग्रेज़ी भाषा के महत्व को आप किसी भी तरह नकार नहीं सकते।

तो मानना पड़ेगा कि अंग्रेज़ी भाषा की बड़ी अहमियत है। किन्तु हम हिन्दीभाषी अंग्रेज़ी को लेकर कितनी ही माथापच्ची क्यों न करें, कभी न कभी तो हिंदी के दो शब्द बोलेंगे ही। जब लगातार अंग्रेज़ी पढ़ने, बोलने या सुनने के बाद थके-हारे घर लौटते हैं, तो मुख से बरबस हिंदी का झरना फूट ही पड़ता है। कार्यालय में अंग्रेज़ी में काम करने की विवशता हो सकती है, लेकिन घर में तो हिंदी का उन्मुक्त सहज प्रवाह अविरल बहता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रियजनों से संवाद की भाषा हिंदी ही है। आपने गौर किया होगा कि मन की गहराई में छिपे मनोभावों को हम अक्सर हिंदी में व्यक्त कर रहे होते हैं, और भावावेश की स्थिति जैसे अत्यधिक दुख, सुख, क्रोध या भय की अवस्था में भी हम जो भाषा बोल रहे होते हैं, वह अक्सर हिंदी ही होती है।

असल में बीते दशकों में हुआ यह कि अंग्रेज़ी तो वरीयता क्रम में सदैव ऊपर ही बनी रही, और हमारी अपनी हिंदी की भूमिका केवल एक विषय तक ही सीमित रही तथा एक भाषा के तौर पर हिंदी का स्थान अंग्रेज़ी की अपेक्षा गौण ही रहा। “अच्छी अंग्रेज़ी बोलना एक कौशल है; हिंदी का क्या है, हिंदी तो बोल ही लेते हैं।” हिंदी कोई जन्म से सीखकर तो आता नहीं, उसे भी प्रयत्न करके ही सीखा जाता है । हिंदी के आधे-अधूरे ज्ञान को कभी एक कमी के तौर पर नहीं समझा गया; वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ी का कम ज्ञान होना एक बड़ी कमी माना गया। अच्छा होता कि हम विश्वभाषा अंग्रेज़ी के साथ-साथ मातृभाषा हिंदी को भी उतनी ही महत्ता देते।

वास्तव में, समस्या अंग्रेज़ी भाषा नहीं है; वह तो सिर्फ एक भाषा है, और करोड़ों लोगों की मातृभाषा है। समस्या दरअसल वह मानसिकता है जो एक हिन्दीभाषी के अंग्रेज़ी न जानने को पिछड़ापन मानती है। यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कि केवल हिंदी जानने वाला व्यक्ति अंग्रेज़ी में बात कर सकने वालों के बीच असहज महसूस करे और हीनता का अनुभव करे।  अंग्रेज़ी को जैसे आधुनिकता का, विद्वता का पर्याय मान लिया गया । कोई बात यदि अंग्रेज़ी में कह दी जाय तो उसका महत्व एकदम से बढ़ जाता है। आम लोगों में जैसे एक धारणा सी बन गयी कि धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने वाला व्यक्ति अवश्य ही ज्ञानवान होगा। एक व्यक्ति, चाहे वह कितना ही विद्वान क्यों न हो, यदि अंग्रेज़ी नहीं जानता है तो क्या उसके जीवन भर अर्जित किये ज्ञान का कोई मूल्य नहीं ? दोष भाषा का नहीं है, दोष हमारी सोच का है, इस सोच के साथ बनी व्यवस्था का है।

इस प्रकार की सोच का एक उदाहरण बॉलीवुड के फिल्म जगत में देख सकते हैं। फिल्म जगत के लोग फिल्में बनाते हिंदी में हैं, अभिनेता-अभिनेत्री फिल्म के सारे संवाद हिंदी में बोलते हैं, उनका दर्शक वर्ग हिन्दीभाषी है, लेकिन यह काफी आश्चर्यजनक है कि मीडिया से बात करते हुए उनमें से ज़्यादातर लोग मुश्किल से ही हिंदी में बात करते दिखते हैं।

हर भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों का भी व्यापक प्रयोग होता है। हिंदी में भी ऐसा ही है। हिंदी के ज़्यादातर शब्द मूलतः संस्कृत के हैं; इसके अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओं जैसे अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी, पुर्तगाली इत्यादि के शब्द हिंदी में खूब इस्तेमाल होते हैं। ये शब्द हिंदी भाषा का अभिन्न हिस्सा इस तरह बन चुके हैं कि विदेशी नहीं लगते, जैसे कि कुर्सी (अरबी), खून (फ़ारसी), दोस्त (तुर्की), साइकिल (अंग्रेज़ी), कमरा (पुर्तगाली) इत्यादि।

आजकल हम हिंदीभाषी एक अलग ही भाषा बोलने लगे हैं, जो ना तो पूरी तरह हिंदी है, ना पूरी अंग्रेज़ी। यह मिली-जुली खिचड़ी भाषा है, जिसे ‘हिंग्लिश’ कह सकते हैं। “कुछ issues हैं जिन्हें discuss करना था”, “अगर need होगी तो हम आपको inform कर देंगे”, “situation काफी tense है” — ऐसा ही कुछ आपने भी सुना होगा। हम कुछ ऐसे शब्दों को अंग्रेज़ी में बड़ी बेबाकी से बोल रहे हैं जिन्हें आराम से हिंदी में बोला जा सकता है। या तो पूरा वाक्य हम अंग्रेज़ी में बोलें तो भी ठीक है। दुख की बात है कि हम अपनी मातृभाषा में सामान्य से शब्द नहीं बोल पा रहे। विशेष रूप से महानगरों में लोग ऐसी ‘भाषा’ बोलते दिख जाते हैं। इस तरह की भाषा सुनकर लगता है जैसे अंग्रेज़ी के शब्द-वाक्यांश हिंदी में घुसपैठ कर रहे हों। अपनी सुविधा के लिए हम हिंदी के मूल स्वरूप को एक प्रकार से विकृत कर रहे हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दशकों में हमारी मातृभाषा विलुप्त होकर  ‘हिंदी का अंग्रेज़ी संस्करण’ बनकर रह जायेगी।

ग्लोबलाइज़ेशन का असर, बाज़ार का हावी होना, धाराप्रवाह अंग्रेज़ी न बोल पाना, हिंदी साहित्य में रूचि न होना, सोशल मीडिया पर हिंग्लिश में बोलते लोग — हिंदी का सहज मूल रूप बिगड़ने के बहुत से कारण गिनाए जा सकते हैं।

हम समझे या न समझे, बाज़ार हिंदी के महत्व को ज़रूर समझ गया है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए हिंदी, हिन्दीभाषी उपभोक्ता से सीधे जुड़ने का एक सशक्त माध्यम है। लेकिन बाज़ार का उद्देश्य हिंदी का उत्थान न होकर उपभोक्ता से संपर्क साधना और उसे प्रभावित करना है।

टीवी, रेडियो, इंटरनेट, और सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों में हिंदी का व्यापक प्रयोग, वेबसाइट और स्मार्ट फोन एप्प के हिंदी संस्करण, अंग्रेज़ी फिल्मों के हिंदी में अनुवादित संवाद, पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी न्यूज़ चैनलों की भरमार — क्या इन संकेतों से मान लें कि हिंदी की महत्ता पुनः बढ़ रही है ? क्या श्रेष्ठ या शुद्ध हिंदी प्रचलन में लाने के गंभीर प्रयास दिखने लगे हैं ? फिलहाल इन प्रश्नों के उत्तर आने वाले समय के लिए छोड़ देते हैं।

भारत की मिट्टी में जन्मी …
हिंदुस्तानी संस्कृति में पली-बढ़ी हिंदी ।
अंतर्मन की अभिव्यक्ति बनकर …
भारतीय होने का बोध कराती मातृभाषा हिंदी ।।

शुभ्र आत्रेय
कॉन्टेंट राइटर
आईटी डिपार्टमेंट

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