देशनायक का संघर्ष
कोई कैसे भुला सकता है उस विराट व्यक्तित्व को जिसके जीवन का प्रत्येक क्षण, प्रत्येक विचार, प्रत्येक कार्य देश की माटी को समर्पित था; जो अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति था; जिसके नेतृत्व, त्याग व बलिदान का उदाहरण विरले ही देखने को मिलता है — इतिहास में सुभाष जैसा व्यक्तित्व सदियों में एक बार आता है। सुभाष बाबू सही अर्थों में राष्ट्रनेता थे, और इसीलिए ही विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें ‘देशनायक‘ कहकर सम्बोधित किया। वास्तव में यह हम देशवासियों का सौभाग्य है कि सुभाष ने इसी भारत भूमि में जन्म लिया। इस राष्ट्र के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उसका ऋण चुका पाना असंभव है।
सुभाष की जीवन गाथा असंख्य संघर्षों की कहानी है। वे देश में रहे हों या देश के बाहर, स्वतंत्र भारत के महान स्वप्न को साकार करने के मार्ग में अनेक बाधाओं का सामना उन्होंने किया। काँग्रेस के भीतर ही उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि 1939 में उन्हें कांग्रेस का दोबारा अध्यक्ष चुन लिए जाने के बाद भी कई वरिष्ठ नेता उनकी कार्यशैली व उनकी विचारधारा के विरुद्ध थे। उन नेताओं में से एक गांधीजी भी थे। 16 मई 1939, हज़रा पार्क, कलकत्ता में हुए सुभाष बाबू के भाषण से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार उन्होंने कांग्रेस में समन्वय स्थापित करने की हर संभव कोशिश की, और किस प्रकार पार्टी में उनके खिलाफ हो रही राजनीति के कारण आखिरकार अध्यक्ष पद से उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा। उन्हीं के शब्दों में, “मैंने महात्मा गांधीजी से कहा कि यह बिलकुल स्पष्ट है कि दूसरों को मेरा प्रस्ताव किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है। दूसरे पक्ष से किसी भी प्रकार के समझौते या सहयोग की पूर्ण अनुपस्थिति में, भविष्य में हम साथ काम कैसे कर सकते हैं। एक ऐसा अध्यक्ष बनने की मेरी कोई इच्छा नहीं है जो काम न कर सके और केवल पद पर बना रहे। अतः मैं ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी को अपना त्याग-पत्र सौंपता हूँ। … … कांग्रेस के भीतर संकट को टालने और एक सम्मानजनक समझौते तक पहुँचने के सारे संभव प्रयास कर लेने के बाद, आत्म-सम्मान तथा देश के प्रति सम्मान व कर्तव्य के कारण यह अपेक्षित था कि मैं त्याग-पत्र दे दूँ।”
सुभाष अंग्रेज़ों द्वारा देश को डोमिनियन स्टेटस दिये जाने के सख्त खिलाफ थे। वे भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे, और इससे कम उन्हें कुछ भी स्वीकार्य न था। दिसंबर 1928, कांग्रेस के कलकत्ता सत्र के अपने भाषण में उन्होंने कहा, “… … इस देश में राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ से ही हमने स्वतंत्रता की व्याख्या सदैव पूर्ण स्वतंत्रता के रूप में की है। हमने इसे डोमिनियन स्टेटस के अर्थ में कभी नहीं लिया। हमारे अनगिनत देशवासियों के बलिदान के बाद, हमारे कवियों द्वारा उस एक अकाट्य सत्य की प्रेरणा देने के बाद, हमने स्वतंत्रता को पूर्ण स्वतंत्रता के रूप में समझा है। डोमिनियन स्टेटस की बात हमारे देशवासियों, बढ़ी होती हमारी युवा पीढ़ी को ज़रा भी प्रेरित नहीं करती … …।
उग्र राजनीतिक विचारों वाले सुभाष की सोच कांग्रेस के नेताओं से एकदम अलग थी। यह पूरी तरह एक क्रांतिकारी सोच थी। दिसंबर 1929 में कांग्रेस के लाहौर सत्र के दौरान उन्होंने कहा, “मेरा कार्यक्रम पूर्ण बहिष्कार का है। … … हो तो पूर्ण बहिष्कार हो या फिर कुछ भी ना हो। मैं एक अतिवादी हूँ और मेरा सिद्धांत है — सब कुछ या कुछ भी नहीं।”
सुभाष का मानना था कि द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थिति का लाभ लिया जाना चाहिए क्योंकि इस समय ब्रिटिश साम्राज्य कमज़ोर स्थिति में है। वे ऐसे समय पर भारत द्वारा ब्रिटेन को किसी भी तरह की मदद दिए जाने के खिलाफ थे। 25 अप्रैल 1942 को जर्मनी से प्रसारित आज़ाद हिंद रेडियो पर उन्होंने कहा, “ऐसे नाज़ुक दौर में हर एक भारतीय का कर्तव्य है वह ब्रिटेन के शत्रुओं का साथ दे। ब्रिटेन के शत्रु हमारे मित्र हैं।”
सुभाष की नीति अंग्रेज़ों के साथ सीधे टकराव की थी, जो कि कांग्रेस की नीति से पूर्णतः भिन्न थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन को उन्होंने अपर्याप्त माना। वे जानते थे कि भारत अपनी आज़ादी सशस्त्र संघर्ष के ज़रिये ही पायेगा। 19 जून 1943 को टोक्यो के इम्पीरियल होटल में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में उनके वक्तव्य का एक अंश — ” … … मात्र सविनय अवज्ञा ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए अपर्याप्त है। जैसे ब्रिटिश सरकार को संगीनों की ताकत पर भरोसा है, हमें भी उन्हें पूरी तरह परास्त करने में संगीनों का इस्तेमाल करना होगा। जैसे दुश्मन हमारे सामने तलवार निकाले खड़ा है, हमें भी उससे केवल तलवार की मदद से ही लड़ना होगा। … … अहिंसा महात्मा गांधी का जीवन-भर सिद्धांत रहा है। लेकिन जहाँ तक जनसामान्य की बात है, उनके लिए यह केवल एक युक्ति है, एक अस्थाई युक्ति, एक युक्ति जो अस्थाई तौर पर सहायक है। समय बदलते ही वे हथियार उठा लेंगे।”
Mr. Shubhra Atreya
Content Writer
IT Department, SVSU