प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं सनातन संस्कृति का विराट् उत्सव
यह महापर्व है, जिसमें सम्मिलित होकर आप हज़ारों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता की निरंतरता का अनुभव करते हैं; यह अनूठा महोत्सव है, जिसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति अत्यन्त भव्य रूप में दृष्टिगोचर होती है; यह अत्यन्त विशाल मेला है, जिसमें भारतवर्ष के हर एक प्रांत, हर एक क्षेत्र से आये करोड़ों श्रद्धालुओं का अपार जनसमूह उमड़ रहा है, और भारत ही नहीं दुनिया के अनेकानेक देशों से आये तीर्थयात्रियों का एक जनसमुद्र, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, हिलोरें ले रहा है, जिसमें बिना किसी निमंत्रण पत्र के, देश के कोने-कोने से, पर्वतों की गुफा-कंदराओं से, जंगलों से अनगिनत साधु-संन्यासी, तपस्वी व साधक आकर उसी स्थान पर एकत्रित हुए हैं, जहाँ गंगा, यमुना, और अदृश्य सरस्वती नदी की जलधाराओं का मिलन होता है, वे आये हैं उसी पवित्र संगम की रेती पर, उसी त्रिवेणी संगम पर जो मोक्षदायी स्नान के लिए जगतप्रसिद्ध है — यह ऐसा अद्भुत अवसर है जो हममें से हर एक व्यक्ति के जीवन में पहली व आखिरी बार आया है; यह विश्व में अभी तक हुआ सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन, सबसे बड़ा सांस्कृतिक समागम है; यह आस्था, आध्यात्म, और संस्कृति का महासंगम है — यह महाकुंभ २०२५ है।
कुंभ का शाब्दिक अर्थ है मिट्टी का घड़ा, घट या कलश। यहाँ कलश का सम्बन्ध ‘अमृत कलश’ से है। कुंभ के मेले का आरंभ कब हुआ होगा, यह बता पाना कठिन है। कुंभ के मेले की महान परंपरा के इतिहास से जुड़ी एक दिलचस्प पौराणिक कथा है — महर्षि दुर्वासा के दिए श्राप के कारण देवता और उनके राजा इंद्र की शक्तियाँ जाती रहीं। इस अवसर का लाभ उठाकर असुरों ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया और उन्हें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। देवता त्रस्त होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। भगवान विष्णु ने उन्हें असुरों से संधि कर क्षीर सागर का मंथन करने को कहा। मंथन से अमृत प्राप्त होता जिससे देवताओं की खोई शक्तियाँ वापस आ सकती थीं और वे असुरों को पराजित कर सकते थे। इंद्र ने समुद्र-मंथन से अमृत निकलने की बात असुरराज बलि को बताकर उसे मनाया और असुर देवताओं के साथ मिलकर समुद्र-मंथन करने को राजी हो गए। अब चूँकि समुद्र को मथना था तो मथनी और नेति भी उसी परिमाण में चाहिए थी। ऐसे में मंदराचल पर्वत को बनाया गया मथनी और वासुकि नाग को नेति। तो इस तरह समुद्र-मंथन आरंभ हुआ। समुद्र-मंथन से अनेक विलक्षण वस्तुएँ उत्पन्न हुईं — सर्वप्रथम निकला हलाहल विष, फिर कामधेनु गाय, ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, देवी लक्ष्मी, … … और अंत में अमृत। जैसे ही अमृत कलश प्रकट हुआ, असुरगण इसे पाने के लिए दौड़ पड़े। भगवान विष्णु ने अपनी माया से असुरों को विचलित कर इंद्र के पुत्र जयंत को अमृत कलश लेकर निकल जाने का आदेश दिया। असुरों ने जयंत का पीछा किया। अमृत कलश पाने को लेकर हुए इस संघर्ष में अमृत की कुछ बूँदें पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरीं — हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक। कालान्तर में इन्हीं पवित्र स्थलों पर कुम्भ मेले का आयोजन होने लगा।
कुंभ मेले के पहले ऐतिहासिक संदर्भ मौर्य और गुप्त काल के दौरान मिलते हैं, जो लगभग चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से छटी शताब्दी ईसवी तक के हैं। कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य ऐसे भी मिले हैं जिनसे मालूम होता है कि कुंभ का आयोजन राजा हर्षवर्धन के समय होता था। राजा हर्षवर्धन के राज्य काल में भारत की यात्रा करने वाले प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख किया है। राजा हर्षवर्धन के दयालु स्वभाव का ज़िक्र करते हुए ह्वेनसांग ने नदी के तट पर आयोजित होने वाले विशाल मेले के आयोजन के बारे में लिखा है, जिसमें हर्षवर्धन अपना पूरा कोष निर्धन और धार्मिक लोगों को दान कर दिया करते थे। कहा यह भी जाता है कि कुंभ मेले के आयोजन की शुरूआत करने वाले या उसे व्यवस्थित रूप देने वाले आठवीं शताब्दी के महान संत आदि शंकराचार्य थे।
कुंभ मेला हर १२ साल में चार पवित्र स्थलों हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में बारी-बारी से आयोजित किया जाता है। हरिद्वार और प्रयागराज में अर्द्धकुंभ मेले का आयोजन भी होता है जो प्रत्येक ६ वर्ष में एक बार किया जाता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में प्रयागराज के कुंभ का विशेष महत्व है। किन्तु इस वर्ष २०२५ में प्रयागराज में कुम्भ मेला नहीं बल्कि महाकुम्भ लग रहा है जो १२ वर्ष बाद नहीं बल्कि १४४ वर्ष बाद आया है।
महाकुंभ का संयोग हर १४४ वर्षों में एक बार आता है। हर १४४ वर्ष में एक दुर्लभ खगोलीय घटना होती है, जो कुंभ मेले को विशिष्ट बनाकर महाकुंभ बना देती है। १२ साल के चक्र को एक सामान्य कुंभ मेला कहा जाता है, और १२ x १२ = १४४ वर्ष के बाद आने वाला हर १२वां कुंभ मेला ‘महाकुंभ’ होता है।
Mr. Shubhra Atreya
Content Writer
IT Department, SVSU