सावन की महिमा
चिलचिलाती धूप में तपती दुपहरी, आग उगलता सूरज, भट्टी सी धधकती सड़कें और सुनसान गलियाँ, लू के थपेड़ों में झुलसते पेड़ और निरीह पशु-पक्षी, भीषण गर्मी में जलता तन, और बारिश की बूँदों को तरसता अकुलाता मन — हर बार आधा बरस बीतने पर वह समय आता है, जब ग्रीष्म अपने चरम पर होती है और शुष्क निष्प्राण धरती जीवनदायी नीर की आस में नभ को ताक रही होती है। यही वह समय है जब दक्षिण-पश्चिम दिशा से मानसूनी पवन महासागर से अथाह जल राशि अपनी अंजुलि में भरकर भारत के उपमहाद्वीप में प्रवेश करती है। जब आसमान का नीला कैनवास काली घटा से भर जाता है, तड़ित की चमक और गर्जन के साथ मेघ नयी ऋतु के आगमन की घोषणा करते हैं, प्यासी धरा वर्षा के ताज़े ठंडे जल का स्पर्श पाकर तृप्त होती है, और हवा में घुलती मिट्टी की सोंधी खुशबू से दिशा-दिशा महकने लगती है — कुछ इस तरह प्रकृति सावन के निकट होने का संकेत देती है।
सावन अर्थात् श्रावण, आषाढ़ के बाद और भाद्रपद के पहले का महीना, जुलाई और अगस्त के बीच के दिन। यूँ तो मानसून की शुरुआत आषाढ़ मास से ही हो जाती है तथा यह क्रम भादो तक जारी रहता है, किन्तु यदि किसी माह से वर्षा ऋतु का सर्वाधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है, तो वह है सावन। सावन की झड़ी माटी को प्राणरस से सींचती है, वनस्पति को नया जीवन देती है, और कृषक का मन उत्साह व उमंग से भर देती है। सदियों से सावन की ऋतु साहित्यकारों के लिए नव-सृजन का आधार रही है। रिमझिम फुहारें, ठंडी बयार, पेड़ के पत्तों से छनकर गिरती बूँदें, बरसात के पानी में नहाते बच्चे, आकाश में बादल और बिजली का खेल — सावन से जुड़ी न जाने कितनी बातें अनगिनत कविताओं व कहानियों का विषय बनती आयी हैं। प्राचीन काल से ही लोक संस्कृति और धर्म से सावन का गहरा नाता रहा है। कहा जाता है कि सावन मास भगवान शिव को विशेष रूप से प्रिय है। इन्हीं दिनों सावन शिवरात्रि का महापर्व आता है, शिवभक्तों के असंख्य दल दूरस्थ तीर्थस्थलों से एकत्र किए गंगाजल से अपने आराध्य का जलाभिषेक करने मीलों लम्बे सफर पर पैदल निकल पड़ते हैं, ‘हर हर महादेव’ के उद्घोष से शिवालय गूँजने लगते हैं, और नगर हो या गाँव, शिवभक्ति की अलौकिक धारा चहुँओर बहने लगती है।
सावन की महिमा के बारे में जितना लिखा जाए उतना कम है। विचार करने के लिए ढेर सारे पहलू हैं। तो क्यों ना यथार्थ के पहलू पर भी विचार कर लिया जाय —
इक्कीसवीं सदी में वक्त की रफ़्तार जैसे कई गुना बढ़ गयी है। आधुनिक युग में बहुत कुछ बदल गया है, बहुत कुछ पीछे छूट गया है। नए ज़माने की चकाचौंध और भागदौड़ से भरी ज़िंदगी में सावन से जुड़ी बहुत-सी पुरानी लोक परम्पराएँ कहीं खो गयीं हैं, दम तोड़ने लगीं हैं। सावन के झूले, सावन की ऋतु में गाये जाने वाले लोक-गीत, हरियाली तीज, सावन से जुड़े कई रीति-रिवाज महानगरीय जीवन की व्यस्तता में अपना अस्तित्व खो चुके हैं। हो सकता है सोशल मीडिया पर कुछ लोग सावन में झूला झूलते या गीत गाते ज़रूर दिख जाएँ, लेकिन वास्तव में सावन की ये परम्पराएँ अब अपनी आखिरी साँस ले रहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में फिर भी इनके बहुत-से अवशेष दिखाई पड़ जाते हैं। इन सदियों पुरानी परम्पराओं को मानने वाले बड़े-बुज़ुर्गों की पीढ़ी भी अब धीरे-धीरे खत्म हो रही है।
वैसे हम आधुनिक लोग भी काफी तरक्की कर गए हैं, बहुत कामकाजी हो गये हैं। जिन शहरों में हम रहते हैं, वहाँ पेड़ हैं कहाँ जिन पर झूले लग सकें, और अगर मुश्किल से एक-दो झूले लगे दिखाई भी दें, तो झूलने का समय हमारे पास नहीं है। लोक गीत में रूचि या लोक भाषा की समझ कितने लोगों को है ? सावन के तीज-त्योहार मनाने की फुर्सत हममें से कितने लोगों को है ? ये पुरानी मान्यताएँ हमारी ‘अत्याधुनिक सोच’ से मेल नहीं खाती, शायद इसीलिए हम उनके लिए वक्त नहीं निकाल पाते। अब हमें कौन समझाए कि आधुनिक या सुशिक्षित होने का अर्थ साँस्कृतिक परम्पराओं को भूल जाना नहीं है।
अगर हम ध्यान से देखें तो पाएँगे कि सावन के झूले, गीत, और त्योहार केवल परम्पराएँ नहीं हैं, बहुत कुछ और भी हैं — सावन का झूला एक अवसर है मौसम का लुत्फ उठाने का, भूले-बिसरे बचपन को फिर से जीने का; सावन के गीत एक माध्यम हैं बीते समय को याद करने का, अपनी जड़ों की ओर लौट जाने का; और सावन के त्योहार एक तरीका हैं अपनी विरासत को सहेज कर रखने का, अपनी पुरातन संस्कृति में फिर से रच-बस जाने का …।
शुभ्र आत्रेय
कॉन्टेंट राइटर
आईटी डिपार्टमेंट